फिल्मों से
हमारे समाज की अनारकलियों के जीवन को एक बाहरी की तरह देखने के बजाय ये फ़िल्म उनके अंतर्मन तक पहुंचाती है. ये फ़िल्म हमारे समाज के दुनाली-धारियों की दुनाली में लगी उस जंग को दिखाती है जिसे गोली खाने के डर से हमारा डरा हुआ समाज देखकर भी अनदेखा कर देता है. लेकिन हमारे ही बीच की कोई अनारकली उसे ज़रा घिसती है, तनिक रगड़ती भी है और ज़रुरत पड़ने पर उस दुनाली को पकड़कर उसी पर तान देती है जो उसकी धौंस में READ MORE
लड़कियों की ‘हिंट’ समझने से पहले ‘पिंक’ देखें
कभी-कभी केवल अंडरटोन से काम नहीं चलता. कुछ बातें होती हैं जो दो-टूक , साफ़-साफ़ कहनी पड़ती हैं. जब समाज का एक बड़ा हिस्सा ग़लत ‘हिंट’ लेने लगता है तो उसे केवल ‘हिंट’ देने से काम नहीं चलता. इसलिए पिंक में एकदम बोल्ड और साफ़-साफ़ शब्दों में ‘नो मतलब नो’ का सन्देश दिया जाना सही समय पर एक ज़रूरी हस्तक्षेप की तरह लगता है. पिंक. ये रंग लड़कियों के हिस्से में क्यों आया होगा ? जब पहली बार खुद से हम ये सवाल कर READ MORE
‘हंसा’ :गांव में शहर की गुपचुप घुसपैठ
हंसा। थियेटर और सिनेमा के अदाकार मानव कौल ने जब इस फिल्म को अपनी फेसबुक टाइमलाइन पे शेयर किया तो पता नहीं था कि इस लिंक के ज़रिये मैं उस दुनिया में पहुंचने वाला हूं जिसे मैने बचपनभर जिया है। आइएमडीबी बताता है कि ये फिल्म 2012 में रिलीज़ हुई और इसे 8.3 की रेटिंग से भी नवाजता है। यूट्यूब पर शायद ये फिल्म ताज़ा ताज़ा अपलोड की गई है। मेरे लिये उत्तराखंड के परिवेश पर अब तक मानीखेज़ एक ही READ MORE
दस्तूरी समाज में कस्तूरी तलाशते दिलों की कहानी : मसान
वो कहती है- “तुम बहुत सीधे और ईमानदार हो। बिल्कुल निदा फाज़ली की गज़लों की तरह।” वो पूछता है – “निदा फाजली, वो कौन हैं ?” और उसका एक मासूम सा जवाब-“यही तो तुम्हारी ईमानदारी है। “ ये स्वीकार्यता हर रिश्ते में नहीं होती। नायिका बशीर बद्र की फैन है। दुश्यंत कुमार की कविताओं की शौकीन है। और जानती है कि नायक ने अगर चकबस्त को सुन लिया तो वो बेहोश हो जाएगा। पर इस जानने में अहमन्यता READ MORE
‘ओल्ड स्कूल’ होकर भी ‘घणी बांवरी’ सी फिल्म
एक शक्ल की दो लड़कियां हैं जिनमें एक ओरिजनल है एक डुब्लिेकेट। अब असल मुद्दा ये है कि जो आॅरिजनल है वो नायक को अब आॅरिजनल नहीं लगती। वो डुब्लिकेट में आॅरिजनल तलाश रहा है। नायक को यहां चाॅइस मिलती है कि वो रिबाॅक पसंद करे या फिर रिब्यूके ? पर असल सवाल ये है कि क्या आॅरिजनल भी यही रखेंगे और डुब्लिकेट भी ? यहां कोई ईंट से ईंट जोड़ने के लिये सीमेन्ट तलाश रहा है वो चाहे किसी भी कंपनी का हो और READ MORE
हत्याओं के प्रतिशोध से गुजरता हाइवे
एन एच 10 के एक दृश्य में मीरा (अनुष्का शर्मा) हाइवे के किसी ढाबे के गंदे से टॉयलेट के दरवाज़े पर लिखे उस एक शब्द को मिटाती हैं- रंडी. हमारे समाज के एक बड़े हिस्से की मानसिकता उसी गंदे टॉयलेट के सड़े-गले टीन के दरवाज़े की तरह ही है. एनएच 10 उस एक गीले कपड़े की तरह उस मानसिक गंदलेपन को पोंछने की एक अच्छी कोशिश करती है. फिल्म हाइवे पे तो निकलती है लेकिन ऐसी पगडंडियों को नमूदार करते हुए जिनके READ MORE
कसेट वाले ज़माने में मोह के धागे
बाज़ार के सामने बार-बार हारता बाॅलिवुड जब दम लगाता है तो दम लगाके हाइशा सरीखा कुछ सम्भव हो पाता है। दम लगाके हाइशा खुद को हारते हुए देखकर भी जीतता हुआ महसूस करने सा अनुभव है। हमारी नज़र भर से जि़न्दगी के तमाम चेहरे एकदम बदल जाते हैं। जो चीज़ हमें जैसी लगती है ठीक वैसी वो कभी होती ही नहीं। हमारी अपनी सीमाएं उस चीज़ के हमारी जि़न्दगी में मायने बदल देती हैं। इसके असर कई बार दूसरों से और READ MORE
पीके एकदम ‘लुल’ नहीं है
चलिये शुरु से शुरु करते हैं। पीके इसी भाव से शुरु होती है। एकदम नग्न। आवरणहीन। इस विशाल दुनिया के मरुस्थल में एक नंगा आदमी खड़ा है जिसे दुनिया के बारे में कुछ नहीं पता। ठीक उस मानसिक अवस्था में जैसे हम पैदा होने के ठीक बाद होते हैं। ठीक इसी बिन्दु पर फिल्म से बड़ी उम्मीदें बंध जाती हैं। एक एलियन की नज़र से इस दुनिया को देखना जिसके लिये ये दुनिया एक अनजान गोला भर है। वो नज़र जिसमें कोई READ MORE
अधूरी होकर भी मुकम्मल दुनिया
फाइन्डिंग फैनी इस स्वार्थी और व्यस्त होती जा रही दुनिया में एक ऐसी जगह की खोज की कहानी है जहां सबसे सबको मतलब होता है। या फिर ये कि स्वार्थी और व्यस्त जैसे बड़े और गम्भीर लफ्ज़ों से उपजने वाले भावों को किसी पुरानी जंग लगी कार में बिठाकर रोजी की उस उस मरी हुई बिल्ली के साथ दफना आने की कहानी है फाइन्डिंग फैनी। रात के वक्त एक अकेले से घर में रह रहे फर्डी को एक खत आता है। खत देखकर फर्डी READ MORE
आँखें खोलने की नसीहत देती ‘आँखों देखी’
दो समानान्तर रेखाएं अनन्त पर मिलती हैं। बाउजी इस बात को मानने से इनकार देते हैं। दो समानान्तर रेखाएं अगर मिल गई तो वो समानान्तर हो ही नहीं सकती। बाउजी के लिये ऐसा कोई अनन्त नहीं बना जहां हम-आप अपनी सुविधा के लिये दो समानान्तर रेखाओं को मिला देते हैं। दरअसल बाउजी उस गणित को अपनी दुनियां से बेदखल करने की ठान चुके हैं जो किसी और के सच के हिसाब से अपने समीकरण तय करता है। वो गणित जो READ MORE
उन चीज़ों को खोते हुए देखना जो आपको बनाती हैं
Beasts of the southern wild हशपपी का खुद पर और जीवन की अच्छाईयों पर एक गहरा और अटूट भरोसा है। ये भरोसा उसकी अपनी बनाई दुनिया से जुटाये आत्वविश्वास से आता है। हशपपी मानती है कि पूरी दुनिया का अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता है कि हर जीज़ अपनी-अपनी जगह पर सही तरीके से फिट हो। यदि इनमें किसी एक भी चीज़ यहां तक कि सबसे छोटी चीज़ में विध्वंश होता है तो पूरी दुनिया नष्ट हो जाएगी। वो खुद को इस बड़े संसार का READ MORE
एक औरत के मन तक ले जाती फिल्म
Film : A woman under influence कितनी फिल्में होंगी जो स्त्रियों के मनोविज्ञान में बहुत गहरे तक झांकने की कोशिश करती हैं। फिल्म जगत में ऐसी फिल्मों की स्थिति माइनोरिटी की तरह ही होगी। जाॅन कैसेवेटस (John cassavetes) की फिल्म अ वुमन अन्डर इन्फलुएंस ऐसी ही फिल्मों में है जो रिश्ते, परिवार, अपने व्यवहार और यहां तक कि अपने वजूद के प्रति एक स्त्री की असुरक्षा, भय और इस वजह से पनपी मनोवैज्ञानिक अस्थिता को मानव स्वभाव READ MORE
अकेलापन समेटकर मुस्कराहट बिखेरती Amelie
एमिली अकेलेपन से जूझती एक लड़की है जो अपनी दुनियां को परिकथाओं सा बनाकर अपने अकेलेपन का हल खोज रही है। एक सनकी से मां बाप की लड़की जिन्हें लगता है कि उसकी बेटी को दिल की बीमारी है, इसलिये उसके बचपन भर में उसे घर से बाहर जाने की मनाही रही। यहां तक कि उसकी पढ़ाई भी घर मे ही हुई है। एक दुर्घटना में मां की मौत के बाद वो घर छोड़ देती है और एक कैफे में काम करना शुरु करती है। एक सीधी-साधी सी दिखने READ MORE
आपकी ज़िंदगी से बात करती एक फिल्म : ‘Her’
फेसबुक पर एक दोस्त के स्टेटस को देखकर ये फिल्म डाउनलोड की और अब रात के दो बजकर 30 मिनट हो चुके हैं..वो फिल्म जो अभी अभी पूरी हुई है नीद की हथेली पकड़कर उसे किसी दूसरे कोने में कुछ देर और बैठने को कह आई है। स्पाइक जोन्ज (Spike Jonze) निर्देशित फिल्म ‘हर‘ आपको टूटे हुए रिश्तों से उपजे अकेलेपन, इन्तजार, विछोह जैसी भावनाओं के रास्ते उस खालीपन की तरफ ले जाती जिसे भरा जाना ज़रुरी सा लगने लगता है। READ MORE
लड़के के लिए तबाह होती जिंदगियों का ‘किस्सा’
पिछले मुंबई फिल्म फेस्टिवल में अनूप सिंह के निर्देशन में बनी फिल्म ‘किस्सा’ देखी थी.. उसी फिल्म पर की गई टिप्पणी को यहां पोस्ट कर रहा हूँ..फिल्म अभी रिलीज़ नहीं हुई है . ये टिप्पणी ‘स्पौइलर’ भी हो सकती है .. भारत-पाकिस्तान के विभाजन के उस दौर में जब सिख अपनी रिहाइश के लिए जूझते हुए पाकिस्तान के पंजाब से भारत के पंजाब आ रहे थे, उनसे उनके पैतृक घर छूट रहे थे। उस दौर के भूगोल से अनूप READ MORE
एक ‘क्वीन’ का आज़ाद होना
दिल्ली में कॉलेज आने जाने वाले लड़कों के बीच एक टर्म बहुत प्रचलित है। ‘बहन जी‘। ‘बहन जी टाइप‘ होना शहरी परिप्रेक्ष में एक लड़की के लिये अच्छा नहीं माना जाता। ‘यूथ‘ की भाषा में कहें तो ‘हैप‘ होना शहर के युवाओं की मुख्यधारा में आने के लिये एक ज़रुरी मानदंड है। इसके उलट परिवार और सगे सम्बन्धियों की परिभाषा में ‘बहन जी टाइप‘ लड़की एक आदर्श लड़की है। फिल्म क्वीन की कहानी में रानी की READ MORE
कहीं आप भी नीरो के मेहमान तो नहीं हैं
नोट: मेरा यह लेख साप्ताहिक समाचार पत्र गाँव कनेक्शन में प्रकाशित हो चुका है। रोम में एक शासक हुआ करता था- नीरो। एक ऐसा शासक जिसके शासनकाल में लगी आग की लपटें आज तक इतिहास के पन्नों को झुलसाती हैं। जब भी उन लपटों की बात होती है तो घोर जनता विरोधी शाषन की तस्वीरें उभरकर सामने आ जाती हैं, कुछ कुछ वही होता है जब भारत में पिछले सालों में हुई किसानों की आत्महत्याओं की बात होती है। किसानों की READ MORE
एक ईमानदारी से बोले गये झूठ की ‘कहानी’
कहानी के ट्रेलर देखकर लग रहा था कि कोई रोने धोने वाली फिल्म होगी… जिसमें शायद कलकत्ते को लेकर नौस्टेल्जिया जैसा कुछ होगा… शायद एक पीडि़त प्रेग्नेंट औरत होगी जो अपने अधिकारों के लिये लड़ रही होगी… शायद नो वन किल्ड जैसिका जैसा ही कुछ… पर फिल्म देखने के बाद अच्छा लगा कि कुछ नया देखने को मिला… प्रिडिक्टिबिलिटी से परे… बौलिवुड के मौजूदा परिदृश्य में जिस तरह फिल्मों से READ MORE
हमारे सिनेमा को जरुरत है पान सिंह तोमर जैसे बागियों की
बीहड़ में बागी होते हैं… डकैत मिलते हैं पार्लामेन्ट में…. पान सिंह तोमर का ये डायलौग फेसबुक की दीवारों पे बहुत दिनों से छाया हुआ था…. तिग्मांशू धूलिया की हासिल देखने के बाद उनकी इस फिल्म से उम्मीदें महीनों पहले से बांध ली थी… आज पवई आईआईटी के पड़ौसी बिग सिनेमा के थियेटर में फिल्म देखने के बाद लगा जैसे कोई साध पूरी हो गई। एक बागी के लिये इतना सम्मान, और अपने सिनेमा के लिये READ MORE
ब्लू वैलेन्टाईन: एक खूबसूरत तनाव
“You got to be careful that person you fall in love is worth it to you” “How can you trust your feelings when they can disappear like that..” किसी से प्यार करते वक्त जो बात सबसे जरुरी है वो ये कि इस बात का पूरा ध्यान रखा जाये कि जिससे आपको प्यार हो रहा है वो इस लायक है भी कि नहीं कि उसे प्यार किया जा सके। ये बात भले ही थोड़ा अटपटी लगे लेकिन ब्लू वैलेन्टाईन यही बात व्यावहारिक ढ़ंग से समझाती है…अक्सर हम अपनी भावनाओं के वश में आकर प्यार करते हैं… भावनाओं का भरोसा READ MORE
रेत और रोमान पोलान्सकी
बीते साल की आंखिरी सांसों के इर्द गिर्द महज महीना पुरानी बेरोजगारी की एक हल्की सी बू थी। रिज्यूमे को ईमेल के जरिये किसी किसी के इनबौक्स में धकेलने की प्रक्रिया थी। खालीपन का एक सतही अहसास था। फिर दिल्ली से मुम्बई पहुंच जाने का फैसला था। नई उम्मीदों और सचमुच का समंदर था। लहरें थी। वर्सोवा था। रोज शाम लाल सूरज का क्षितिज से नीचे उतरता एक असल दृश्य था। और समुद्र में पहले सुनहरा और फिर READ MORE
सिनेमाथैक पर ईदियां…..
कश्मीर को इस पूरे दौर में एक ऐसे प्रान्त के रुप में देखा, समझा और महसूस किया गया है जो किसी देश से जुड़ने और अलग हो जाने के बीच ऐसे पिस रहा है जैसे दो पाटों के बीच कोई परम्परा पिस रही हो। जैसे अलग होने और अपना साबित करने के बीच की ये लड़ाई अपने राजनैतिक, धार्मिक और भौगोलिक कारणों के वजहकर कभी खत्म ही नहीं होगी। चलती रहेगी। इस लड़ाई पर हर तरह के लोग अपनी प्रतिक्रिया देने से नहीं चूकते। READ MORE
सिने सफर मुख्तसर- भाग 1
मोहल्ला लाईव, जनतंत्र और यात्रा बुक्स द्वारा आयोजित बहसतलब का पहला दिन कुछ सार्थक बहसों के नाम रहा । अविनाश दास ने कार्यक्रम की रुपरेखा रखी और फिर मिहिर पान्डया के संचालन में कार्यक्रम ने रफतार पकड़नी शुरु की। अभी गाड़ी स्लो पेस में थी। सफर शुरु हुआ ही था। सिनेजगत की उपरी सतहों से शुरु होकर उसकी गहराईयों में उतरता एक बातचीत का सफर जिसमें एक साथ परदे के पीछे अपनी भूमिका अदा करने READ MORE
सिने सफर मुख्तसर- भाग 1
मोहल्ला लाईव, जनतंत्र और यात्रा बुक्स द्वारा आयोजित बहसतलब का पहला दिन कुछ सार्थक बहसों के नाम रहा । अविनाश दास ने कार्यक्रम की रुपरेखा रखी और फिर मिहिर पान्डया के संचालन में कार्यक्रम ने रफतार पकड़नी शुरु की। अभी गाड़ी स्लो पेस में थी। सफर शुरु हुआ ही था। सिनेजगत की उपरी सतहों से शुरु होकर उसकी गहराईयों में उतरता एक बातचीत का सफर जिसमें एक साथ परदे के पीछे अपनी भूमिका अदा करने READ MORE
फिल्म में काम करने के इच्छुक सम्पर्क करें
ब्लाग जगत से सम्पर्क रखने वालों के लिये जो खास तौर पर फिल्मों के शौकीन हैं एक खबर अनुरोध की शक्ल में यहां दे रहा हूं। जामिया के एमसीआरसी में शूट हो रही स्टूडेन्ट फिल्म के लिये एक लीड एक्टेस की आवश्यकता है। अदाकारा की उम्र 20 से 25 साल के बीच हो। थियेटर या फिल्मों का थोड़ा ही सही अनुभव या समझ हो। 14 से 22 अप्रैल के बीच सात दिन पूरी तरह दे सके। और उससे पहले जितनी जल्दी हो सके रिहर्सल के लिये READ MORE
कुरुसावा के सपने
कई बार हम सपने देखते हैं और जब जागते हैं तो सोचते हैं जो हमने देखा उसका अर्थ आंखिर था क्या। पर अक्सर ज्यादातर सपनों को हम भुला ही देते हैं ऐसे जैसे उन्हें हमने कभी देखा ही न हो। पर क्या आपको नहीं लगता कि किसी दूसरे के सपने अपनी आंखों से देखना कितना रोमांचक अनुभव हो सकता है। और वो भी तब जब सपने किसी सुन्दर फिल्म में फिल्मा लिये गये हो और वो भी अकिरा कुरुसावा जैसे निर्देशक के द्वारा। READ MORE
लव.. सेक्स.. धोखा. और सच
लव, सेक्स और धोखा। इन तीनों में से कोई भी शब्द हाईपोथैटिकल और नया नहीं है। तीनों इन्सानी फितरत के हिस्से हैं। और इसी तरह हिन्दुस्तानी फिल्मों के भी। लेकिन दिबाकर बनर्जी जिस तरीके से इन तीनों को स्क्रीन पे दिखाते हैं उससे फिल्म की ग्रामर को ही एक नई धारा सी मिल जाती है। मेरी समझ से इस तरह की फिल्म हिन्दुस्तान में पहले कभी नहीं बनी। जिसमें सब कुछ आन कैमरा चल रहा है। फिल्म कैमरे के READ MORE
एक बेजुबान आक्रोश
सारे आक्रोष महज एक दुर्घटना बनकर समाप्त हो जाते हैं। ये आक्रोश भी कुछ ऐसा ही था। गोविन्द निहिलानी की इस फिल्म को देखकर ताजा ताजा बस यही समझ में आता है कि आक्रोश की अपनी असल आवाज उसके सन्नाटे में दबी होती है। मगर अक्सर इस चुप्पी के पीछे जो आक्रोश दबा होता है वो इतना खामोश रहता है कि उसका होना न होना बनकर समाप्त हो जाता है। आदिवासियों पर होने वाले अत्याचार पर बनी इस पूरी फिल्म में READ MORE
एक बवंडर से उठी फिल्म
राजस्थान की भंवरी देवी को शायद आप अब तक न भूले हों। 1992 में राजस्थान की भतेरी गांव की इस महिला का गांव के ही कुछ उच्च जाति के लोगों ने बलात्कार किया। वजह यह थी कि एक छोटी जाति की महिला होने के बावजूद उसने गांव में हो रहे बाल विवाह को रोकने के लिए सरकार की मदद करनी चाही। केन्द्र सरकार के महिला विकास कार्यक्रम के तहत साथिन नाम की संस्था के साथ उसने सक्रिय रुप से गांव की सामाजिक बुराईयों के READ MORE
एक पार्टी ऐसी भी
पार्टी कल्चर से बहुत ज्यादा ताल्लुक ना होने के बावजूद इस पार्टी ने लुभा लिया। 1984 में आई गोविन्द निहिलानी की फिल्म पार्टी गर्मियों की पहाड़ी ठंडक का अहसास करते हुए देखी। फिल्म वर्तमान साहित्य जगत के पूरे गड़बड़झाले को उस दौर में भले ही कह गई हो पर आज भी सीन बाई सीन सच्चाई वही है। तल्ख ही सही। पार्टी की कहानी एक पार्टी की तैयारियों से शुरु होती है। ये पार्टी प्रतिष्ठित साहित्यकारों READ MORE
भावनाओं का संसार रचती दो उम्दा फिल्में
इस बीच माजिद माजिदी की दो फिल्में देखने को मिली। चिल्ड्रन आफ हैवन और कलर्स आफ पैराडाईस। माजिद माजिदी की फिल्में एक अलग संसार रचती हैं। गांवों का संसार, भावनाओं का संसार और अदभुत प्राकृतिक और मनोवैज्ञानिक सुन्दरता का संसार। इन दो ही फिल्मों ने इस ईरानी निर्देशक के प्रति एक अजीब सा आकर्षण जेहन में पैदा किया है। कोई निर्देशक कितनी गहराई से अभावों के बीच से उपजते मनोवैज्ञानिक READ MORE